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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 12 
प्रियंवदा महारानी ने कहा "सखि मैं महा पतिव्रता देवी सावित्री का पूरा वृत्तान्त सुनना चाहती हूं । अपनी ये दोनों पुत्रियां भी उन महा सती के विषय में जानेंगी तो ये भी वैसी ही बनने की प्रेरणा लेंगीं । एक स्त्री के लिए पतिव्रत धर्म से बढ़कर और कोई धर्म नहीं होता है । इसलिए आप उस आख्यान को कृपा करके शीघ्र सुनाइये" । 
"ये आपने सही कहा कि देवयानी और शर्मिष्ठा भी इस प्रसंग को सुनें । इन प्रसंगों के माध्यम से हम यह परम ज्ञान एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तांतरित कर देते हैं । जैसे मेरी माता इन्द्राणी शची ने मुझे यह ज्ञान दिया था , वही ज्ञान आज मैं पुत्री देवयानी और शर्मिष्ठा को देने जा रही हूं । आशा है कि यह परंपरा आगे भी निभाई जाती रहेगी । इन परंपराओं का ही असर है कि भारतीय संस्कृति इतने आक्रमणों के पश्चात भी नष्ट-भ्रष्ट नहीं हुई" । 
"ये पतिव्रता स्त्री क्या होती है माते" नन्ही देवयानी ने कौतुहल से पूछा 
"अरे वाह , हमारी देव तो इस आख्यान में बहुत रुचि ले रही है । जानकर अच्छा लगा पुत्री । आखिर आनुवांशिक गुण तो आयेंगे ही ना ? पुत्री , पतिव्रता स्त्री वह कहलाती है जो अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का सपने में भी चिंतन नहीं करती है । पर पुरुष से बात नहीं करती है । पति की आज्ञा का पालन करती है और प्रत्येक कार्य अपने पति की प्रसन्नता के लिए करती है । मोटे मोटे रूप में पतिव्रता स्त्री ऐसी ही स्त्री कहलाती है । तो समझ गई पुत्री ? अब आगे चलें" ? 
देवयानी ने सहमति की मुद्रा में अपना सिर हिलाया । 

एक बार की बात है कि मद्र देश का एक राजा था । उसका नाम था अश्वपति । राजा अश्वपति बहुत धर्मात्मा, दयालु , सत्य प्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय , प्रजावत्सल, दानवीर , क्षमाशील और परम वीर थे । इतने गुण होने के पश्चात भी उनमें एक अवगुण था । उनके कोई संतान नहीं थी । संतान की चिंता में राजा और रानी दोनों दुखी रहते थे । बिना संतान के "पितृ ऋण" से कैसे उबरें ? यही चिंता खाये जा रही थी उन्हें । 

एक दिन उनके गुरु ने उन्हें "संतानोत्पत्ति यज्ञ" करने का सुझाव दिया । राजा अश्वपति माता गायत्री के अनन्य उपासक थे । इसलिए उनके गुरू ने उन्हें प्रतिदिन एक लाख आहुति एक माह तक देने वाला यज्ञ करने की सलाह दी । राजा और रानी ने ऐसा ही किया । वे प्रतिदिन एक लाख गायत्री मन्त्र की आहुति यज्ञ में देने लगे । भरपूर दान दक्षिणा देने लगे । यह यज्ञ पूरे एक माह तक चला । अंत में देवी सावित्री साक्षात प्रकट हुईं और वे राजा अश्वपति से बोलीं "हे राजन ! मैं आपके विशुद्ध ब्रह्मचर्य,  इन्द्रिय संयम, मनोनिग्रह और भक्ति भाव से दी गई आहुतियों से अत्यन्त प्रसन्न हूं । आप कोई भी मनोवांछित वर मांग सकते हैं" । 
तब राजा अश्वपति ने कहा "हे माते, यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं आपके दर्शन कर पा रहा हूं । इससे श्रेष्ठ क्षण मेरे जीवन में और क्या आयेगा ? यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे कोई वर देना चाहती हैं तो मुझ पर कृपा करके वह कार्य पूरा कीजिए जिसके लिए मैंने यह यज्ञ किया है । अर्थात आप मुझ निसंतान व्यक्ति को एक संतान दे दीजिए" । 
तब माता सावित्री ने उन्हें यह कहा "हे राजन ! अपने कुल की वृद्धि के लिए सब लोग पुत्र की इच्छा रखते हैं । मगर मैं तुम्हें एक पुत्री देना चाहती हूं । पुत्र तो केवल एक कुल तारता है लेकिन पुत्री दो कुल तारती है । चूंकि तुम धर्मात्मा, उदारमना, प्रजा वत्सल और भक्ति भाव से परिपूर्ण हो इसलिए मैं तुम्हें एक तेजस्वी और ओजस्वी पुत्री देना चाहती हूं । आपके घर में एक बहुत ही गुणवान कन्या का जन्म होगा जो आपकी और अपनी ससुराल की कीर्ति स्वर्ग लोक से भी आगे लेकर जायेगी । वह दृढ निश्चय वाली होगी और बहुत धैर्यवान, बुद्धिमान होगी" । यह कहकर माता सावित्री अंतर्धान हो गई । 

राजा और रानी इस वरदान से बहुत प्रसन्न हुए । ठीक दस महीने पश्चात उनके यहां एक तेजोमयी पुत्री ने जन्म लिया । वह पुत्री देखने में ब्रह्मा पत्नी माता साधित्री की तरह तेजवान और गुणवान लग रही थी इसलिए उसका नाम सावित्री रख दिया । 

धीरे धीरे वह कन्या बड़ी होने लगी । वह अद्वितीय सुन्दरी थी । बुद्धिमान, गुणवान और अपार तेजस्विनी थीं । उनके तेज के सम्मुख कोई ठहर ही नहीं पाता था । धीरे धीरे सावित्री तरुणी से युवा हो गई । 

जब वह विवाह योग्य हो गई तब राजा को उसके विवाह की चिंता होने लगी । उनके तेजोमयी स्वरूप को देखकर किसी भी राजकुमार , ब्राह्मण पुत्र अथवा किसी अन्य युवक की हिम्मत नहीं हुई जो उनके साथ विवाह बंधन में बंधने को तैयार हो जाये । राजा के पास सावित्री का हाथ मांगने कोई नहीं आया । तब राजा ने सावित्री से कहा 
"पुत्री , अब तुम विवाह योग्य हो गई हो और अब तक कोई भी युवक तुम्हारा हाथ मांगने नहीं आया है । शास्त्रों में लिखा है कि पुत्री के विवाह योग्य होने के उपरांत भी यदि पिता अपनी पुत्री का कन्यादान नहीं करता है तो वह पाप का भागी बना है । इसलिए हे पुत्री ! अब तुम ही मुझे इस पाप से बचा सकती हो । पुत्री , मैं तुम्हें वचन देता हूं कि जिस किसी युवक को तुम विवाह योग्य समझो , उसका नाम बता देना , मैं उस युवक से तुम्हारा विवाह अवश्य करूंगा , इसमें कोई संदेह नहीं है । पुत्री , जाओ और जगह जगह घूम घूमकर अपने योग्य पति की तलाश करो" । 

इस प्रकार राजा ने एक रथ मंगवाया और उस पर सावित्री को बैठा दिया । एक दूसरे रथ पर मंत्री और अन्य अधिकारियों को बैठा दिया । प्रचुर मात्रा में सैनिक साथ भेजे गये । इस प्रकार सावित्री अपने योग्य पति की तलाश करने निकल पड़ी । 

काम्यक वन से लेकर चैत्ररथ वन फिर दण्डकारण्य से होकर बद्रिकारण्य, रमणक वन , मरुभूमि, विभिन्न राज्यों आदि से होकर एक दिन वह वापस अपने पिता अश्वपति के पास लौट आई । संयोगवश उस समय देवर्षि नारद पधारे हुए थे । सावित्री ने देवर्षि नारद और अपने पिता को प्रणाम किया । तब राजा अश्वपति ने देवर्षि नारद को अपनी पुत्री का परिचय करवाया और कहा "प्रभो, सावित्री के तेज के कारण कोई भी युवक इसका हाथ मांगने को तैयार नहीं था । तब मैंने इसे स्वयं वर तलाशने के लिए भेजा था । यह अभी लौटकर आई है । लगता है कि कोई शुभ समाचार देने वाली है क्योंकि इसके चेहरे से इसके मन के भाव प्रकट हो रहे हैं" । तब वे सावित्री की ओर देखकर बोले 
"पुत्री , लगता है कि तुम्हें तुम्हारा स्वर्ग प्राप्त हो गया है । तुम्हारा प्रसन्न मुख , बोलती आंखें , मुस्कुराते अधर , हर एक हाव भाव तुम्हारे सिद्ध मनोरथ का वर्णन कर रहे हैं । पुत्री, अब और धैर्य धारण करने की शक्ति नहीं है मुझमें । शीघ्र ही वह बात बताओ जिसे सुनने के लिए मेरे कान अधीर हो रहे हैं, मन व्याकुल हो रहा है और हृदय तेजी से स्पंदित हो रहा है । पुत्री, मेरा होने वाला जामाता कौन है , कैसा है , किस का पुत्र है , कौन से राज्य का राजकुमार है अथवा कौन से गोत्र का ब्राह्मण कुमार है, मुझे शीघ्र बताओ" । राजा अश्वपति का उल्लास अवर्णनीय था । 
"तात् । तनिक धैर्य धारण करो । अभी सारा वृत्तान्त आपको सुनाती हूं । शाल्व देश में द्युमत्सेन नामक प्रसिद्ध धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । काल की गति और कर्मों के फल से वे अंधे हो गये । उनके पुत्र सत्यवान तब बालक थे । उनकी इस क्षीण शारीरिक स्थिति का लाभ उठाकर उनके एक पड़ौसी राजा ने उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया और बुद्धिमान राजा द्युमत्सेन का राज्य हड़प लिया । तब राजा द्युमत्सेन अपनी पतिव्रता पत्नी और बालक के साथ वन में आश्रय लिया । वे धर्मात्मा द्युमत्सेन अब वन में ही निवास करते हैं । उन धर्मात्मा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं । वे ही मेरे पति होने योग्य हैं । मैं उनके साथ ही विवाह करना चाहती हूं" । लाज और संकोच से नीची नजरें किये हुए सावित्री ने कहा । 

इससे पहले कि राजा अश्वपति कुछ कहते देवर्षि नारद बोल पड़े "राजन, आपकी पुत्री ने सूर्य के समान तेजस्वी, ब्रहस्पति के समान बुद्धिमान, इन्द्र के समान वीर और पृथ्वी के समान क्षमाशील राजकुमार का चयन किया है । राजकुमार सत्यवान राजा रन्तिदेव के सदृश दानवीर , राजा शिबि के सदृश धर्म मर्मज्ञ और शरण वत्सल हैं । वे हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी और कामदेव के सदृश सुदर्शन हैं । वे जितेन्द्रिय, मृदुल, शूरवीर , संयमी , सबके मित्र , अदोषदर्शी, लज्जावान और कांतिमान हैं । तप और शील में महर्षि की भांति है और उसके चेहरे पर मासूमियत सदैव विराजमान रहती है । वह हर दृष्टि से आपकी कन्या सावित्री के पति होने योग्य है । किन्तु ...." 

नारद जी के किन्तु कहते ही राजा अश्वपति ने चौंककर नारद जी को देखा । सावित्री भी अधीर होकर उन्हें देखने लगी । राजा बोले "किन्तु क्या मुनिवर" ? 
"उसमें एक ही दोष है जो उसके समस्त गुणों को उसी प्रकार निगल लेता है जिस प्रकार एक भारी भरकम अजगर बड़े बड़े जानवरों को निगल जाता है । उस दोष को किसी भी प्रकार से हटाया भी नहीं जा सकता है" । नारद जी चिंतित होते हुए बोले 

नारद जी को चिंतित देखकर राजा अश्वपति विचलित हो गये और कहने लगे "मन की धड़कनें ना बढ़ाइये तात् । अब तो रहस्य से पर्दा हटाइये । कहीं ऐसा ना हो कि रहस्य से परदा उठने से पहले ही मेरी हृदय गति रुक जाये" 
"थोड़ा मन मजबूत करके सुनो राजन । राजकुमार सत्यवान की उम्र बहुत कम है । आज से ठीक एक वर्ष के पश्चात उसकी मृत्यु हो जाएगी । उसमें यही सबसे बड़ा दोष है" नारद जी ने उच्छवास छोड़ते हुए कहा । 

नारद जी की बात सुनकर राजा अश्वपति अंदर तक हिल गये और कहने लगे "ये राजकुमार तुम्हारे योग्य नहीं है पुत्री । जानते बूझते वैधव्य अपनाना कोई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है पुत्री । इसलिए एक बार और जाओ और कोई अच्छा सा वर ढूंढ कर लाओ" । राजा अश्वपति ने सत्यवान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया । 

अपने पिता के इस निर्णय पर सावित्री कहने लगी "तात् । भाइयों के मध्य बंटवारा एक बार ही होता है । वर के हाथ में कन्या का हाथ भी एक ही बार दिया जाता है और दान देने का वचन भी एक बार ही दिया जाता है । संसार में ये तीन कार्य केवल एक बार ही किये जाते हैं । इसी प्रकार वर का चुनाव भी एक बार ही किया जाता है । मैंने राजकुमार सत्यवान को पहली नजर में ही अपने हृदय के मंदिर में बैठाकर उनकी पति रूप में पूजा कर ली है । मेरे मन ने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया है । अब बाकी सांसारिक रीति रिवाज यथा लग्न , फेरे , सिंदूर आदि केवल औपचारिकता मात्र हैं । अत : हे मुनि श्रेष्ठ ! अब आप ही बताइए कि मेरे पास और कोई विकल्प है क्या ? अब विवाह होना या नहीं होना मेरे लिए कोई महत्व नहीं रखता है । एक बार जब मैंने उन्हें अपना पति मान लिया है तब मैं किसी और पुरुष का ध्यान स्वप्न में भी नहीं कर सकती हूं । यदि मेरे भाग्य में वैधव्य ही लिखा है तो उसे कौन टाल सकता है ? अत : मैं केवल उनसे ही विवाह करूंगी अन्यथा अविवाहित रह जाऊंगी" । 

सावित्री के स्थिर और दृढ मत को देखकर राजा हतप्रभ रह गये । उन्होंने सावित्री को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन जिस तरह एक क्षत्रिय अपने सामने मृत्यु को देखकर भी युद्ध से विरत नहीं होता है उसी प्रकार एक पतिव्रता स्त्री किसी भी परिस्थिति में अपने धर्म से च्युत नहीं होती है । ऐसा जानकर राजा अश्वपति ने सावित्री की बात मानकर उसका सत्यवान के साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया । 

क्रमश : 

श्री हरि 
3.5.23 

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2 Comments

वानी

08-May-2023 02:50 PM

खूबसूरत भाग

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Hari Shanker Goyal "Hari"

08-May-2023 11:52 PM

🙏🙏🙏

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